कबीरधाम (कवर्धा)छत्तीसगढ़

हम अच्छे थे या बुरे थे नहीं मालूम पर हमारा भी एक जमाना था.. यादगार जमाना..” हमारा बचपन, कहते हैं कि अतीत की जिंदगी बहुत प्यारी होती है अपनी ओर आकर्षित करता 19वीं सदी, इस भागम दौड की जिंदगी में अगर आपके पास वक्त हो तो.. अपने बचपन का बिताया हुआ पल को जरूर पढ़ें

Editor In Chief 

डॉ मिर्जा कवर्धा

हमारा भी एक जमाना था…हमारा भी एक जमाना था.. 

खुद ही स्कूल जाना पड़ता था ,क्योंकि साइकिल बस आदि से भेजने की रीत नहीं थी, स्कूल भेजने के बाद कुछ अच्छा बुरा होगा ;ऐसा हमारे मां-बाप कभी सोचते भी नहीं थे…! उनको किसी बात का डर भी नहीं होता था पास/फैल यही हमको मालूम था… % से हमारा कभी संबंध ही नहीं था..!. ट्यूशन लगाई है ऐसा बताने में भी हमें शर्म आती थी क्योंकि हमको ढपोर शंख समझा जा सकता था..!इसलिए हम कभी ट्यूशन गये ही नहीं! 

किताबों में पीपल के पत्ते, विद्या के पत्ते, मोर पंख रखकर हम होशियार कहलाते थे।ऐसी हमारी धारणाएं थी..! कपड़े के थैले में,बस्तों में और बाद में एल्यूमीनियम की पेटियों में किताब कॉपियां बेहतरीन तरीके से जमा कर रखने में हमें महारत हासिल थी.. !.. हर साल जब नई क्लास का बस्ता जमाते थे उसके पहले किताब कापी के ऊपर खाकी पेपर की जिल्द चढ़ाते थे और यह काम…एक वार्षिक उत्सव या त्योहार की तरह होता था.! जिल्द चढ़ाने के बाद किताबों, कोपियों को भारी बक्से के नीचे रखते थे ताकि जिल्द को मजबूती मिल सके…!

साल खत्म होने के बाद किताबें बेचना, और अगले साल की पुरानी किताबें खरीदने में हमें किसी प्रकार की शर्म नहीं होती थी..क्योंकि तब हर साल न किताब बदलती थी और न ही पाठ्यक्रम…! हमारे माताजी- पिताजी को हमारी पढ़ाई का बोझ है ऐसा कभी लगा ही नहीं…!  

किसी दोस्त के साइकिल के अगले डंडे पर और दूसरे दोस्त को पीछे कैरियर पर बिठाकर गली-गली में घूमना हमारी दिनचर्या थी…!.

इस तरह हम ना जाने कितना घूमे होंगे…! स्कूल में मास्टरजी के हाथ से मार खाना, पैर के अंगूठे पकड़ कर खड़े रहना, और कान लाल होने तक मरोड़े जाते वक्त हमारा ईगो कभी आड़े नहीं आता था…! सही बोले तो ईगो क्या होता है ? यह हमें मालूम ही नहीं था…! घर और स्कूल में मार खाना भी हमारे दैनिक जीवन की एक सामान्य प्रक्रिया थी….!. मारने वाला और मार खाने वाला दोनों ही खुश रहते थे.. ! मार खाने वाला इसलिए क्योंकि कल से आज कम पिटे हैं , और मारने वाला इसलिए खुश कि आज फिर हाथ धो लिये……! 

बिना चप्पल जूते के और किसी भी गेंद के साथ लकड़ी के पटियों से बैट व विकट बना कर कहीं पर भी नंगे पैर क्रिकेट खेलने में क्या सुख था वह सिर्फ हमको ही पता है..! हमने पॉकेट मनी कभी भी मांगी ही नहीं और पिताजी ने भी दी नहीं..!. इसलिए हमारी आवश्यकता भी छोटी छोटी सी ही थीं….साल में कभी-कभार मेले, त्योंहारों पर खर्ची मिला करती थी। 

ऊसमें भी हम बहुत खुश हो लेते थे….छोटी मोटी जरूरतें तो घर में ही कोई भी पूरी कर देता था क्योंकि परिवार संयुक्त होते थ.. दिवाली में लोंगी पटाखों की लड़ को छुट्टा करके एक एक पटाखा फोड़ते रहने में हमको कभी अपमान नहीं लगा…!हम….हमारे मां बाप को कभी बता ही नहीं पाए कि हम आपको कितना प्रेम करते हैं! क्योंकि हमको आई लव यू कहना ही नहीं आता था.! आज हम दुनिया के असंख्य धक्के और टाॅन्ट खाते हुए …..और संघर्ष करती हुई दुनिया का एक हिस्सा है..!  किसी को जो चाहिए था वह मिला और किसी को कुछ मिला कि नहीं कुछ भी पता नही हैं। स्कूल के बाहर हाफ पेंट में रहकर गोली टाॅफी बेचने वाले की दुकान पर दोस्तों द्वारा खिलाए पिलाए जाने की कृपा हमें याद है…..! 

कल का वह बचपन आज बुढ़ा हो गया हैं। आँखें धुंधला गई हैं, बाल सफेद हो गये हैं, और हम दादा – नाना हो गये हैं! समय गुजर गया हैं। 

वह दोस्त कहां खो गए..? 

वह बेर वाली कहां खो गई…? 

वह चूरन बेचने वाला कहां खो गया…? 

वह बचपन में हर पल साथ खेलने वाले दोस्त कहाँ खो गये पता नहीं.. ! 

 हम दुनिया में कहीं भी रहे पर यह सत्य है कि हम वास्तविक दुनिया में बड़े हुए हैं , और

हमारा वास्तविकता से सामना

वास्तव में ही हुआ है…। 

कपड़ों में सिलवटें ना पड़ने देना और रिश्तों में औपचारिकता का पालन करना

हमें जमा ही नहीं…!.

सुबह का खाना और रात का खाना , 

ईसके सिवा टिफिन क्या था ,

हमें मालूम ही नहीं..!  

जो जीवन हमने जिया…

उसकी वर्तमान से तुलना

हो ही नहीं सकती,,,,,,,,! 

आज सब सुख सुविधाएं हैं फिर भी वो आनंद दूर दूर तक नजर नही आता हैं  जिसको हमने जिया हैं। 

हम अच्छे थे या बुरे थे ,

नहीं मालूम!

पर हमारा भी एक जमाना था…! यादगार जमाना …”हमारा बचपन”

       

News Desk

Editor in chief, डॉ मिर्जा कवर्धा

News Desk

Editor in chief, डॉ मिर्जा कवर्धा

संबंधित आलेख

Back to top button
error: Content is protected !!