कबीरधाम (कवर्धा)छत्तीसगढ़

श्री गणेश चतुर्थी आज 7 सितम्बर 2024- आज चौथ के चंद्रमा के नहीं करते दर्शन:- पण्डित देव दत्त दुबे ,श्री शंकराचार्य शिष्य”

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डॉ मिर्जा कवर्धा 

श्री गणेश चतुर्थी को वरद चतुर्थी, सौभाग्य चतुर्थी तथा संवत्सरी चतुर्थी भी कहते हैं।

भाद्रपद की शुक्ल चतुर्थी तिथि के दिन भगवान गणेश का मध्याह्न काल में जन्म हुआ था। मध्याह्न काल में पूजा करने का खास महत्व माना गया है। 7 सितंबर 2024 शनिवार से 10 दिवसीय गणपति उत्सव प्रारंभ हो रहा है। 

गणेश चतुर्थी पर्व तिथि व मुहूर्त-मध्यान्ह काल पूजा का समय

चतुर्थी तिथि प्रारम्भ- 06 सितम्बर 2024 को दोपहर बाद 03:01 बजे से प्रारम्भ हो गई है।

चतुर्थी तिथि की समाप्ती- 07 सितम्बर 2024 को शाम 05:37 बजे होगा।

7 सितंबर 2024 को मध्यान्ह काल कब रहेगा

श्री शंकराचार्य शिष्य पण्डित देव दत्त दुबे जी बताते हैं इस पर्व में मध्याह्न के समय मौजूद (मध्याह्न व्यापिनी) चतुर्थी ली जाती है क्योंकि गणेश जी का जन्म मध्याह्न काल में हुआ था। 

07 सितंबर 2024 को मध्यान्ह काल का समय रहेगा। दिन के दूसरे प्रहर को मध्यान्ह काल कहते हैं।

मध्यान्ह काल सुबह 09 बजे से दोपहर 12 बजे के बीच रहता है इसके बाद अपरान्ह समय लग जाता है।

अभिजीत मुहूर्त में पूजा करना सबसे शुभ रहेगा जो सुबह 11:54 से दोपहर 12:44 तक रहेगा।

श्री शंकराचार्य शिष्य पण्डित देव दत्त दुबे के अनुसार गणों के अधिपति श्री गणेश जी प्रथम पूज्य हैं, सर्वप्रथम उन्हीं की पूजा की जाती है, उनके बाद अन्य देवताओं की पूजा की जाती है। किसी भी कर्मकांड में श्री गणेश की पूजा-आराधना सबसे पहले की जाती है क्योंकि गणेश जी विघ्नहर्ता हैं, और आने वाले सभी विघ्नों को दूर कर देते हैं।

श्री गणेश जी लोक मंगल के देवता हैं, लोक मंगल उनका उद्देश्य है परंतु जहाँ भी अमंगल होता है, उसे दूर करने के लिए श्री गणेश जी अग्रणी रहते हैं। गणेश जी रिद्वी और सिद्धी के स्वामी हैं। इसलिए उनकी कृपा से संपदा और समृद्धि का कभी अभाव नहीं रहता है। श्री गणेश जी को दूर्वा और मोदक अत्यंत प्रिय है।

भारत में कुछ त्यौहार धार्मिक पहचान के साथ-साथ क्षेत्र विशेष की संस्कृति के परिचायक भी हैं। इन त्यौहारों में किसी न किसी रूप में प्रत्येक धर्म के लोग शामिल रहते हैं। जिस तरह पश्चिम बंगाल की दूर्गा पूजा आज पूरे देश में प्रचलित हो चुकी है उसी प्रकार महाराष्ट्र में धूमधाम से मनाई जाने वाली गणेश चतुर्थी का उत्सव भी पूरे देश में मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी का यह उत्सव लगभग दस दिनों तक चलता है जिस कारण इसे गणेशोत्सव भी कहा जाता है।

कब से कब तक मनाया जाता है गणेशोत्सव

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से गणेश जी का उत्सव गणपति प्रतिमा की स्थापना कर उनकी पूजा से आरंभ होता है और लगातार दस दिनों तक घर में रखकर अनंत चतुर्दशी के दिन बप्पा की विदाई की जाती है। इस दिन ढोल नगाड़े बजाते हुए, नाचते गाते हुए गणेश प्रतिमा को विसर्जन के लिये ले जाया जाता है। विसर्जन के साथ ही गणेशोत्सव की समाप्ति होती है।

गणेश चतुर्थी को क्यों कहते हैं डंडा चौथ

गणेश जी को ऋद्धि-सिद्धि व बुद्धि का दाता भी माना जाता है। मान्यता है कि गुरु शिष्य परंपरा के तहत इसी दिन से विद्याध्ययन का शुभारंभ होता था। इस दिन बच्चे डण्डे बजाकर खेलते भी हैं। इसी कारण कुछ क्षेत्रों में इसे डण्डा चौथ भी कहते हैं।

कैसे करें गणेश प्रतिमा की स्थापना व पूजा

गणेश चतुर्थी के दिन प्रात:काल स्नानादि से निवृत होकर गणेश जी की प्रतिमा बनाई जाती है। यह प्रतिमा सोने, तांबे, मिट्टी या गाय के गोबर से अपने सामर्थ्य के अनुसार बनाई जा सकती है। इसके पश्चात एक कोरा कलश लेकर उसमें जल भरकर उसे कोरे कपड़े से बांधा जाता है। तत्पश्चात इस पर गणेश प्रतिमा की स्थापना की जाती है। इसके बाद प्रतिमा पर सिंदूर चढ़ाकर षोडशोपचार कर उसका पूजन किया जाता है। गणेश जी को दक्षिणा अर्पित कर उन्हें 21 लड्डूओं का भोग लगाया जाता है। गणेश प्रतिमा के पास पांच लड्डू रखकर बाँकी बांट दिये जाते हैं। गणेश जी की पूजा सांय के समय करनी चाहिये। पूजा के पश्चात दृष्टि नीची रखते हुए चंद्रमा को अर्घ्य दिया जाता है। मान्यता है कि इस दिन चंद्रमा के दर्शन नहीं करने चाहिये। श्री गणेश जी के स्थापन पूजन पश्चात ब्राह्मणों को दक्षिणा भी दी जाती है।

श्री गणेशोत्सव का इतिहास

श्री गणेश उत्सव का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। गणेश जी को विघ्नहर्ता माना जाता है। इसका पौराणिक एवं आध्यात्मिक महत्व है। इस उत्सव का प्रारंभ छत्रपति शिवाजी महाराज जी के द्वारा पुणे में हुआ था। शिवाजी महाराज ने गणेशोत्सव का प्रचलन बड़ी उमंग एवं उत्साह के साथ किया था, उन्होंने इस महोत्सव के माध्यम से लोगों में जनजाग्रति का संचार किया। इसके पश्चात पेशवाओं ने भी गणेशोत्सव के क्रम को आगे बढ़ाया। गणेश जी उनके कुल देवता थे इसलिए वे भी अत्यंत उत्साह के साथ गणेश पूजन करते थे। पेशवाओं के बाद यह उत्सव कमजोर पड़ गया और केवल मंदिरों और राजपरिवारों में ही सिमट गया।

इसके पश्चात 1892 में भाऊसाहब लक्ष्मण जबाले ने सार्वजनिक गणेशोत्सव प्रारंभ किया। स्वतंत्रता के पुरोधा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, सार्वजनिक गणेशोत्सव की परंपरा से अत्यंत प्रभावित हुए और 1893 में स्वतंत्रता का दीप प्रज्ज्वलित करने वाली पत्रिका ‘केसरी’ में इसे स्थान दिया। उन्होंने अपनी पत्रिका ‘केसरी ‘ के कार्यालय में इसकी स्थापना की और लोगों से आग्रह किया कि सभी इनकी पूजा-आराधना करें, ताकि जीवन, समाज और राष्ट्र में विघ्नों का नाश हो। उन्होंने श्री गणेश जी को जन-जन का भगवान कहकर संबोधन किया। लोगों ने बड़े उत्साह के साथ उसे स्वीकार किया, इसके बाद गणेश उत्सव जन-आंदोलन का माध्यम बना। उन्होंने इस उत्सव को जन-जन से जोड़कर स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु जनचेतना जाग्रति का माध्यम बनाया और उसमें सफल भी हुए। आज भी संपूर्ण महाराष्ट्र इस उत्सव का केंद्र बिन्दु है, परंतु देश के प्रत्येक भाग में भी अब यह उत्सव जन-जन को जोड़ता है।

News Desk

Editor in chief, डॉ मिर्जा कवर्धा

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