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कावेरी बामजेई का कॉलम: दर्शक- जो कभी फिल्म सितारों को पूजते थे- आज उनके इतने खिलाफ क्यों हो गए हैं?

आर. बाल्की की नई फिल्म ‘चुप’ का एक किरदार कहता है कि बेटी बचाओ की तरह एक सिनेमा बचाओ आंदोलन भी होना चाहिए। इसी फिल्म- जो सिनेमा और विशेषकर गुरु दत्त के प्रति आदरांजलि है- में अमिताभ बच्चन भी विशेष भूमिका में हैं। वे एक दृश्य में कहते हैं, सिनेमा को निडर और निष्पक्ष आवाजों की जरूरत है।

आज जब देश में बॉयकॉट बॉलीवुड आंदोलन और कैंसल कल्चर का शोर है, तो ऐसे में ‘चुप’ से ज्यादा प्रासंगिक फिल्म कोई दूसरी नहीं हो सकती थी। आज यह स्थिति है कि फिल्म कलाकार भले कॉफी विद करण में बैसिरपैर की बातें करते रहें, लेकिन वे अपने किरदारों और अपनी कला के बारे में चर्चा नहीं करना चाहते हैं।

आखिर बॉलीवुड इस मुकाम तक कैसे पहुंचा कि दर्शक- जो कभी इन्हीं फिल्म सितारों को पूजते थे- आज इतनी घृणा के साथ उनके खिलाफ हो गए हैं? क्या इसका कारण महामारी से बदली परिस्थितियां हैं? या सुशांत के साथ जो हुआ, उसने लोगों का मन बदल दिया? या फिल्म कलाकारों का घमंड दर्शकों को खटकने लगा है?

मौजूदा हालात के लिए ये तमाम कारण जिम्मेदार हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण यह है कि बॉलीवुड कहानियां कहने की कला भूल गया है। उसमें वह क्षमता नहीं बची कि दर्शकों की कल्पनाओं पर हावी हो सके, सिनेमाघर के अंधेरे में उनका हाथ थाम सके और उन्हें हंसने-रोने के लिए प्रेरित कर सके।

जब तक फिल्मों को अलबेले किरदारों वाली मौलिक कहानियों के बजाय स्प्रेडशीट्स वाले प्रोजेक्ट्स की तरह देखा जाता रहेगा, अच्छे कलाकारों के ‘कागज के फूल’ पैरों तले कुचले जाते रहेंगे।

ब्रह्मास्त्र’ को अच्छी शुरुआत मिली है, लेकिन इसका मुख्य कारण उसके मुख्य कलाकारों रणबीर कपूर-आलिया भट्‌ट की जोड़ी के प्रति दर्शकों का स्नेह, उसमें सुपरस्टार कलाकारों की विशेष भूमिकाएं, उसके स्पेशल इफेक्ट और टिकटों की बढ़ी हुई दरें शामिल हैं। लेकिन यह ‘चुप’ है, जिसने सिनेमा पर एक जरूरी नागरिक-बहस को आगे बढ़ाया है।

आज इसकी जरूरत थी, क्योंकि सिनेमा आलोचना का विषय बना हुआ है। ऐसे में बाल्की आगे आए हैं, जो 1970 के दशक में बेंगलुरु में फिल्में देखते हुए बड़े हुए थे और इस माध्यम से बहुत प्यार करते हैं। बाल्की का मानना है कि सिनेमा में स्वस्थ-आलोचना के लिए जगह होनी चाहिए, जिससे दर्शकों की रुचियां परिष्कृत हों और अच्छे सिनेमा को आगे बढ़ने की प्रेरणा भी मिले। उनकी बात में तुक है।

अच्छे सिनेमा को अच्छे दर्शक चाहिए- वैसे दर्शक जो सिनेमाघर में जाने की जेहमत उठाना चाहें और जिन्हें टिकटों की दरें डराएं नहीं। अच्छे सिनेमा को अच्छी व्याख्या करने वालों की भी दरकार होती है, और यहीं पर आलोचकों का महत्व बढ़ जाता है। क्योंकि ये आलोचक ही हैं, जो दर्शकों को क्लासिक फिल्मों के संदर्भ से परिचित कराते हैं, नई फिल्म-तकनीकों को उन्हें समझाते हैं और कहानी के मंतव्यों को भी उन तक पहुंचाते हैं। एक ऐसे माहौल में जहां सभी आहत हो जाने को तैयार बैठे हैं, लीक से हटकर काम करने के लिए बड़ा साहस चाहिए।

अफसोस की बात है कि हाल के दिनों में मुम्बई फिल्म उद्योग में कहानी या किरदारों पर इतनी बहस नहीं हुई है, जितनी कि बॉक्स ऑफिस के आंकड़ों पर। इसने फिल्म-कला को महज व्यवसाय की वस्तु बनाकर रख दिया है। जब फिल्म-उद्योग कलात्मक श्रेष्ठता का बखान करने के बजाय कमाई के आंकड़ों की बात करने लगे तो समझ जाना चाहिए कि कहीं पर कुछ गड़बड़ है।

जब तक फिल्मों को अलबेले किरदारों वाली मौलिक कहानियों के बजाय स्प्रेडशीट्स वाले प्रोजेक्ट्स की तरह देखा जाता रहेगा, गुरु दत्त बनने की सम्भावना रखने वाले कलाकारों के कागज के फूल पैरों तले कुचलते रहेंगे। अगर सभी अपना काम अच्छे से करें, तो सिनेमा भी देखने लायक बनेगा।

जैसा कि फिल्म ‘चुप’ में दलकेर सलमान के द्वारा निभाया गया चरित्र एक क्रिटिक से कहता है- अगर अमिताभ बच्चन आलोचना से डरकर अपनी भूमिकाओं के साथ प्रयोग करना बंद कर दें तो क्या वे अपने दर्शकों को अपने अच्छे काम से वंचित नहीं कर देंगे? यकीनन, दलकेर सलमान जैसे ऑफबीट सिनेमा में काम करने वाले कलाकार अगर सेफ खेलने लग जाएंगे तो इससे दर्शकों के रूप में हमारा ही तो नुकसान होगा।

बॉलीवुड अभिनेताओं, निर्देशकों और निर्माताओं के लिए संदेश : फोन से नजर उठाइए, इंस्टाग्राम डिलीट कीजिए, हवाई अड्‌डों पर तस्वीरें खींचने वाले पत्रकारों को पैसा देना बंद कीजिए, बेतुके टॉक-शो से तौबा कीजिए, उनसे मिलिए जिनके पास अच्छी कहानियां हैं और जो नए अंदाज में दिलचस्प बातें कहना जानते हैं, और शायद उनके साथ खुद को भी एक मौका दीजिए।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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