कबीरधाम (कवर्धा)छत्तीसगढ़

सरकारी योजनाओं का हश्र: सरकार बदली, तो बदल गई प्राथमिकताएँ

छुरिया से अकील मेमन की रिपोर्ट..

छुरिया (छत्तीसगढ़): सरकारें बदलती हैं, तो उनके साथ नीतियाँ भी बदल जाती हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या योजनाओं का भविष्य भी सिर्फ सत्ता के फेरबदल पर निर्भर होना चाहिए? छत्तीसगढ़ में पूर्ववर्ती सरकार द्वारा शुरू की गई “नरवा, गरवा, घुरवा, बाड़ी” और रूरल इंडस्ट्रियल पार्क (रीपा) जैसी योजनाएँ इस सवाल का जीता-जागता उदाहरण हैं। नई सरकार के आते ही इन योजनाओं पर ध्यान कम होता जा रहा है, और इससे न केवल ग्रामीण विकास पर असर पड़ रहा है, बल्कि सरकार द्वारा खर्च किए गए करोड़ों-अरबों रुपये भी व्यर्थ होते नजर आ रहे हैं।

जब तक सत्ता थी, तब तक प्राथमिकता थी

पूर्व सरकार ने अपने कार्यकाल में इन योजनाओं को ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनाने का सपना देखा था। इनमें से “नरवा, गरवा, घुरवा, बाड़ी” योजना का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में जल संरक्षण, पशुपालन, जैविक खेती और सब्जी उत्पादन को बढ़ावा देना था। इसी तरह, “रीपा” योजना के तहत गाँवों में छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने और स्थानीय लोगों को रोजगार देने की कोशिश की गई थी।

इन योजनाओं का असर भी दिखा—जहाँ प्रशासनिक अमला ईमानदारी से काम कर रहा था, वहाँ लोगों को लाभ मिला। पशुपालकों को गौठानों में चारे और देखभाल की सुविधा मिली, किसानों को खाद और जैविक खेती से जुड़ी मदद मिली, और छोटे उद्यमियों को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए गए। लेकिन जहाँ अधिकारी सुस्त रहे, वहाँ यह योजनाएँ कागजों तक ही सीमित रह गईं।

सरकार बदलते ही बदला नज़रिया

2023 के विधानसभा चुनावों में सत्ता परिवर्तन के साथ ही इन योजनाओं की गति धीमी पड़ गई। नई सरकार पुरानी योजनाओं पर ध्यान देने के बजाय नई नीतियों को प्राथमिकता देने में जुट गई। अक्सर सरकारें यह सोचती हैं कि अगर वे पूर्व सरकार की योजनाओं को आगे बढ़ाएंगी, तो इसका श्रेय पिछली सरकार को मिल जाएगा। लेकिन इस राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में जनता का ही नुकसान होता है।

सरकारी मशीनरी भी इसी बदलाव के साथ अपने नज़रिए को ढाल लेती है। योजनाओं को लागू करने वाले अधिकारी और कर्मचारी यह जानते हैं कि वेतन और सुविधाएँ तो उन्हें सरकार चाहे किसी की भी हो, मिलती ही रहेंगी। इसलिए वे भी नई सरकार के हिसाब से प्राथमिकताएँ बदल लेते हैं।

नई योजनाओं की आड़ में पुरानी योजनाएँ ठप

इतिहास गवाह है कि जब भी कोई नई सरकार सत्ता में आती है, तो वह खुद को अलग साबित करने के लिए नई योजनाएँ घोषित करती है। इसके लिए न केवल पुरानी योजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है, बल्कि नई योजनाओं के नाम पर फिर से सरकारी खजाने से करोड़ों-अरबों रुपये खर्च कर दिए जाते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि जनता उन्हीं मूलभूत सुविधाओं के लिए हर बार नए सिरे से संघर्ष करने को मजबूर हो जाती है।

जनता का वोट, नेताओं का खेल

हर चुनाव में जनता को कई बड़े वादे किए जाते हैं। छोटी-छोटी आर्थिक सहायता, मुफ्त राशन या अन्य लालच देकर उन्हें वोट देने के लिए तैयार किया जाता है। लेकिन यह ध्यान देने वाली बात है कि मतदान करने वाला व्यक्ति आज भी वहीं खड़ा है, जबकि जिन नेताओं को उसने सत्ता तक पहुँचाया, वे चुनाव जीतने के बाद संपत्ति और संसाधनों में वृद्धि करते चले जाते हैं।

जरूरत है जागरूकता की

जरूरी यह है कि जनता सिर्फ सरकार बदलने के खेल का हिस्सा न बने, बल्कि यह भी देखे कि योजनाओं का सही क्रियान्वयन हो रहा है या नहीं। सरकार कोई भी हो, जरूरी यह है कि जनता का पैसा सही जगह खर्च हो, न कि सिर्फ राजनीतिक स्वार्थों की भेंट चढ़ जाए।

अगर सरकारें यह समझें कि योजनाएँ सत्ता के लिए नहीं, बल्कि जनता के विकास के लिए होती हैं, तो शायद यह स्थिति बदल सकती है। लेकिन जब तक सत्ता में बैठे लोग अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने में ही लगे रहेंगे, तब तक जनता को वही पुरानी कहानी बार-बार सुननी पड़ेगी—बस किरदार बदलते रहेंगे!

News Desk

Editor in chief, डॉ मिर्जा कवर्धा

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